Source: Inc.Magazine
संज्ञानात्मक सिद्धांत
संज्ञानात्मक क्रिया किसी भावना को उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है। रिचर्ड लॉरेंस के अनुसार भावना किसी चीज के बारे में जानबूझ कर पैदा होती है। इस प्रकार की संज्ञानात्मक क्रिया चेतन या अवचेतन हो सकती हैं तथा वैचारिक प्रक्रिया का रूप ले सकती है या नहीं भी ले सकती है । यहां लॉरेंस का एक प्रभाव शाली सिद्धांत है, कि भावना एक बाधा है जो निम्न क्रम में उत्पन होती है -
1) संज्ञानात्मक मूल्यांकन - व्यक्ति उस घटना का तर्कपूर्ण आकलन करता है जो भावना को इंगित करती है।
2) शारीरिक बदलाव - संज्ञानात्मक प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप जैविक बदलाव होते हैं , जैसे दिल की धड़कन का बढना या पिटयूटरी एड्रिलिन की प्रतिक्रिया ।
3) क्रिया - व्यक्ति भावना को अनुभव करता है और प्रतिक्रिया चुनता है । उदाहरण के लिए - कार्तिक एक कुत्ते को देखता है । (1) कार्तिक जब कुत्ते को देखता है , तो उसे डर लगता है । (2) उसका दिल जोर से धड़कने लगता है। एड्रिलिन का रक्त में प्रवाह तेज हो जाता है। (3) कार्तिक चिल्लाता है और भाग जाता है । लॉरेंस कहते है कि भावनाओं की गुणवत्ता और तीव्रता को संज्ञानात्मक प्रतिक्रियाओं द्वारा नियंत्रित किया जाता है। ये प्रतिक्रियाएं बचाव की रणनीति बनाती हैं जो व्यक्ति और उसके वातावरण के बदलाव के अनुसार भावनात्मक होती है।
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दैहिक सिद्धांत
भावनाओं के दैहिक सिद्धांत के अनुसार , शरीर भावनाओं के प्रति आवश्यक निर्णय की बजाए सीधे प्रतिक्रिया करता है। इस तरह के सिद्धांतो का पहला आधुनिक संस्करण 1880 में विलियम जेम्स ने प्रस्तुत किया। 20वी सदी में इस सिद्धांत ने समर्थन खो दिया, लेकिन हाल ही में जॉन कचिओप्पो , एंटोनियो दमासियो , जोसेफ ई लीदु और रॉबर्ट ई जेजोंक जैसे शोधकर्ताओं के कोशिकाविज्ञानी ( Neurological) प्रमाणों के फलस्वरूप इसने फिर से लोकप्रियता हासिल कर ली है।
जेम्स - लैंग सिद्धांत
जेम्स - लैंग सिद्धांत बताता है कि शारीरिक परिवर्तनों से होने वाले अनुभवों के कारण बड़े पैमाने पर भावनाओं की अनुभूति होती है ।इस सिद्धांत और इसके तथ्यों के अनुसार , परिस्थिति के बदलने से शारीरिक बदलाव होता है । जैसे कि जेम्स कहते है कि शारीरिक बदलाव होने की अवधारणा ही भावना है। जेम्स दावा करते है कि ' हमे उदासी अनुभव होती हैं क्यों कि हम रोते है, लड़ाई के समय क्रोधित होते हैं , कांपने के कारण डरते हैं, और ऐसा भी हो सकता है कि माफी मांगते हुए , क्रोध या डर के समय हम न रोये , न लड़े या न कांपे । इस सिद्धांत को प्रयोगों द्वारा साबित किया गया है, जिसमें शरीर की स्थितियों में बदलाव ला कर वांछित भावना प्राप्त की जाती है। इस प्रकार के प्रयोगों को चिकित्सा में भी प्रयुक्त किया गया है । जैसे लाफ्टर थेरेपी , डांस थेरेपी आदि।
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न्यूरोबायोलॉजिकल सिद्धांत
मस्तिष्क संरचना की तंत्रिकाओं की मैपिंग से मिली जानकारी से , मानव भावनाओं की न्यूरोबायोलॉजिकल व्याख्या यह है कि भावना एक प्रिय या अप्रिय स्थिति है जो स्तनधारी के मस्तिष्क में पैदा होती है। यदि इसकी सरीसृपों से तुलना की जाएं तो भावनाओं का विकास , सामान्य हड्डियों वाले जंतु का स्तनधारी के रूप में बदलने के समान होगा , जिनमें न्यूरोकेमिकल ( जैसे डोपामाइन , नोराड्रेनेलिन और सेरोटोनिन ) में मस्तिष्क की गतिविधि के स्तर के अनुसार उतार - चढ़ाव आता है, जो कि शरीर के हिलने - डुलने , मनोभावों तथा मुद्राओं में परिलक्षित होता है। उधारण प्यार की भावना को स्तनधारी के मस्तिष्क के पेलियोसर्किट की अभीव्यक्ति माना जाता है जिससे देखभाल , भोजन कराने और सौंदर्य जैसी भावनाओं का बोध होता है।