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भारत का संविधान -
किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का सामाजिक बहिष्कार हमारे संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना गया है. जबकि यह हमेशा देखा गया है कि समाज की अमानवीय प्रथा के तहत आए दिन किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का परिवार सहित सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है. आज भी कई जगहों पर कई जातियों में बात बात पर धमकी के रूप में हुक्का पानी बंद कर दिए जाने की चेतावनी दी जाती है.इन विषयों में खाप पंचायत जैसे आतन्कित करने वाले नाम से तो लोग भलीभांति परिचित होंगे. ये अनिर्वाचित ग्राम परिषदें हैं. खाप पंचायतों को कंगारू अदालतों के रूप में भी जाना जाता है और वर्ष 2011 में, उन्हें सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा पूरी तरह से अवैध करार दे दिया गया था.
महाराष्ट्र, सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ कानून लाने वाला पहला राज्य -
महाराष्ट्र की भूमि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और महात्मा फुले जैसे कई क्रांतिकारी परिवर्तनों के निर्माताओं की कर्मभूमि रही है, जिन्होंने समाज़ में फैले असमानता के जहर और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ जीवन भर संघर्ष किया. और महाराष्ट्र भारत का वह पहला राज्य है जहाँ सामाजिक बहिष्कार को अपराध मानते हुए कानून लाया और बनाया गया है. सामाजिक बहिष्कार जैसी घटनाओं को रोकने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने सर्वसम्मति से सामाजिक बहिष्कार (रोकधाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2016 पारित किया था.Quicker Tricky Reasoning E-Book- Download Now |
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"गवर्नमेंट ऑफ़ महाराष्ट्र गजट" (दिनांक 3 जुलाई 2017) में राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त करने के बाद पहली बार प्रकाशित हुआ था. यह किसी व्यक्ति या समूह के सामाजिक बहिष्कार के निषेध का उपबंध करने वाला पहला अधिनियम था जो नागरिकों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देते हुए प्रस्तावना लक्ष्य के रूप में व्यक्ति की गरिमा को आश्वस्त और सुनिश्चित करता था. और के महाराष्ट्र में जाट' (जाति) पंचायत संगठनों को निषेध और विनियमित भी.
इस अधिनियम के मुताबिक अगर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के सामाजिक बहिष्कार से जुड़े मामले में दोषी पाया जाता है तो उसे तीन साल तक की जेल और 1 लाख रूपये तक के जुर्माना की सजा हो सकती है. इस कानून के मुताबिक आर्थिक जुर्माने की पूरी रकम या उस रकम का एक हिस्सा पीड़ित व्यक्ति को दिया जाएगा.
प्रगतिशील राज्य -
उल्लेखनीय है कि पूर्व में महाराष्ट्र में भी सामाजिक बहिष्कार से जुड़े अनेकों मामले सामने आ चुके हैं, जब ग्राम परिषद के आदेशों के तहत, व्यक्तियों और उसके परिवारों को समुदाय से बाहर निकाल दिया जाता था. समाज से बहिष्कृत ऐसे लोगों को मंदिरों, कुंओं, सामाजिक समारोहों तथा बाजारों आदि में प्रवेश से वंचित कर दिया जाता था. यही नहीं कई मामलों में तो पंचायतों के द्वारा महिलाओं के ऊपर डायन और चुड़ैलों के होने का कलंक लगा कर सजा के रूप में उनके साथ सामूहिक बलात्कार या हत्या तक करने के आदेश दे दिए जाते थे. परन्तु इस सब के बाद जल्द हीं वर्ष 2013 में यह प्रगतिशील राज्य काला जादू, मानव बलि, बीमारियों को ठीक करने के लिए किए जाने वाले कथित जादुई उपचार के उपयोग और लोगों के अंधविश्वासों का फायदा उठाने वाले अन्य कार्यों के खिलाफ अधिनियम पारित करने वाला पहला राज्य बन गया था.
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‘’अंधविश्वास विरोधी’’ कानून के बाद महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘’सामाजिक बहिष्कार’’ के खिलाफ और पुराने रिवाजों को खत्म करने के लिए यह दूसरा कानून लाया गया जो एक स्वस्थ और रूढ़िमुक्त समाज की स्थापना की दिशा में उठाया गया एक और बड़ा कदम रहा.
इस बिल के मुताबिक सामाजिक बहिष्कार झेलने वाला कोई भी व्यक्ति स्वयं या उसके परिवार का कोई अन्य सदस्य पुलिस में जाकर या सीधा जज के सामने अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है. बिल में ये भी प्रावधान भी है कि चार्जशीट दाखिल होने के बाद 6 महीने के भीतर सुनवाई पूरी हो जानी चाहिए ताकि दोषियों को शीघ्र सजा मिल सके.
यहाँ से शुरू हुआ क्रांतिकारी परिवर्तन -
अगस्त 2016 में, महाराष्ट्र के पुणे में 48 साल के एक व्यक्ति अरुण नायकूजी ने एक जाट पंचायत द्वारा उसे और उसके परिवार को सामाजिक रूप से बहिष्कृत करने के बाद आत्महत्या कर खुद को मार डाला था. नायकूजी और उनके परिवार का बहिष्कार तब इस लिए किया गया था क्योंकि उसके भाई का दोस्त दूसरी जाति की लड़की से शादी करना चाहता था और नायकूजी के भाई ने अपने दोस्त को यह शादी करने में मदद की थी. 5 मई 2017 आंध्र प्रदेश में पश्चिम गोदावरी के गरगापरु गाँव में लगभग बारह सौ दलितों को उनके गाँव के जमींदारों द्वारा बहिष्कार किया गया था. तब इस प्रकार के न्यूज भारत में आम बात हुआ करती थी. आज से कई सालों पहले हमारे समाज में मानसिक संकीर्णता और कुप्रथाओं का यह आलम था कि अठारहवीं सदी तक दक्षिणी भारत की कुछ विशेष जाति समुदाय की महिलाओं को वक्ष ढकने पर भी हिंसा का सामना करना पड़ता था. भारत में, सामाजिक बहिष्कार सजा देने का एक अतिरिक्त रूप है, जिसका इस्तेमाल जाति और धर्म पर आधारित भेदभाव को कायम रखने के लिए किया जाता है. लेकिन महाराष्ट्र वह पहला राज्य है जिसने इस प्रथा को ख़त्म करने की दिशा में सबसे पहला अनुकरणीय कदम उठाया.भारत के सभी राष्ट्रीय उद्यान | विश्व की दस सबसे लंबी नदियां | |
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सामाजिक बहिष्कार (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2016
13 जुलाई वर्ष 2017 को, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सामाजिक बहिष्कार (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2016 को अपनी स्वीकृति दी. यह अधिनियम सामाजिक बहिष्कार को दंडित करने वाला भारत का पहला कानून है. महाराष्ट्र के इस कदम को जाति-आधारित भेदभाव से निपटने के लिए एक प्रगतिशील कदम के रूप में हमेशा देखा और सराहा जाएगा. भारत के झारखण्ड, उड़ीसा जैसे कई अन्य राज्यों को महाराष्ट्र के ऐसे प्रगतिशील विचारों से प्रेरणा लेनी चाहिए जहाँ से आज भी सामाजिक बहिष्कार के नाम पर महिलाओं के ऊपर डायन चुड़ैल का तमगा लगा कर पूरे गाँव में नंगा कर घुमाना, सामूहिक प्रताड़ना, बलात्कार और हत्या जैसी घटनाएँ आए दिन सामने आती रहतीं हैं.नई सदी के भारत को रोजगार की उपलब्धि, उत्तम शिक्षण दर, संपन्न और खुशहाल खेती, पानी की समस्या का निदान, नैसर्गिक संपदा को बचाने की कोशिश और बढ़ते औद्यागिकरण की ओर अपना ध्यान लगाना चाहिए न कि सामाजिक बहिष्कार, जादू टोना और जाति आधारित भेदभाव के प्रति. इस दिशा में न्यायव्यवस्था का सजग होना भी आवश्यक है. सामाजिक क्रांति की शुरुवात यहीं से होगी.