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भारत में शून्य का आदिकाल से उपयोग -
जब दुनिया इस महत्वपूर्ण संख्या से बिलकुल अनजान थी भारत के प्राचीन ज्योतिष विज्ञानी अपनी खगोल विद्या, अंक शास्त्र या एस्ट्रोनॉमी में गणित की इस रहस्यमयी संख्या यानि शुन्य का प्रयोग किया करते थे.
इधर दुनिया शुन्य जैसी किसी संख्या को मानने के लिए तैयार नहीं थी. एक उदाहरण - प्रसिद्द दार्शनिक अरस्तु का एक प्रसिद्द तर्क कि ''नथिंग कैन नॉट बी सम थिंग''. इस तरह के अनेक ऐसे उदहारण भरे पड़े हैं जिससे साबित होता है कि पश्चिम तो शून्य के विचार से हीं घृणा करता था. जबकि भारत की खगोलीय गणनाओं का शून्य एक अभिन्न अंग था.
न केवल गणितीय बल्कि सांस्कृतिक महत्त्व भी -
न केवल गणितीय अंक के रूप में बल्कि प्राचीन भारत में शास्त्रीय गायन, नृत्य और संगीत के भी स्वर और तालों के कई रूपों में यह संख्या अपना सांस्कृतिक महत्त्व रखती थी. शून्य भारत में संख्या प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था. एक भारतीय विद्वान पिंगला ने इस द्विआधारी संख्या का इस्तेमाल किया था. यही वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ''शून्य'' के लिए संस्कृत शब्द शून्य का प्रयोग किया. इसके बाद ईस्वी सन् 628 में ब्रह्मगुप्त जो एक खगोलशास्त्री, विद्वान और गणितज्ञ थे ने पहली बार शून्य और उसके संचालन को परिभाषित किया और इसके लिए एक प्रतीक विकसित किया जो संख्याओं के नीचे एक बिंदु रूप में था. उन्होंने शून्य का उपयोग करके जोड़ और घटाव जैसे गणितीय कार्यों के लिए नियम भी लिखे. इसके बाद भारत के एक महान गणितज्ञ और खगोलशास्त्री ''आर्यभट्ट'' ने दशमलव प्रणाली में शून्य का प्रयोग किया.
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शून्य का तथ्य -
तथ्य कहते हैं कि शून्य का प्रयोग भारत में पांचवीं शताब्दी ईस्वी के आसपास हुआ था. वैसे जब भी शून्य के पहली बार प्रयोग की बात आती है तो नाम भारत का हीं आता है. प्रमाणिक रूप से शून्य का प्रयोग पहली बार बख्शाली पांडुलिपि में दिखता है जो तीसरी या चौथी शताब्दी का है. ऐसा कहा जाता है कि एक किसान को 1881 में पेशावर के पास बख्शाली गांव (वर्तमान पाकिस्तान में) में अपने एक खेत को खोदने के दौरान ये पांडुलिपियाँ मिली थी. इन पांडुलिपियों में सिर्फ एक दस्तावेज का टुकड़ा नहीं है, बल्कि इसमें कई टुकड़े मिले हैं जो सदियों पहले लिखे गए थे. इस पांडुलिपि में बर्च की छाल के 70 पत्ते हैं और इसमें डॉट्स के रूप में सैकड़ों शून्य की संख्या मौजूद है. ऐसे अन्य भी कई पांडुलिपियां मिली हैं पर उनमें से अधिकाँश प्रासंगिक पांडुलिपियां बर्च की छाल पर हीं लिखी गई थीं. और मुश्किल ये है कि बर्च की छाल पर अंकित ये दस्तावेज बहुत पुराने हैं और आर्द्र जलवायु के कारण बहुत खराब स्थिति में हैं. फिर भी रेडियोकार्बन डेटिंग तकनीक की मदद से (जो कार्बनिक पदार्थों में कार्बन आइसोटोप की सामग्री को माप कर उसकी उम्र निर्धारित करने की एक विधि है) यह ज्ञात हुआ है कि बख्शाली पांडुलिपि में मौजूद कई ग्रन्थों में से सबसे पुराना भाग 224-383 ई. का, अगला भाग 680-779 ई. का और तीसरा भाग 885-993 ई. का है. भारत में, ग्वालियर के एक मंदिर में एक प्राचीन शिलालेख पाया गया जो नौवीं शताब्दी का है और इसे शून्य का सबसे पुराना दर्ज उदाहरण माना जाता है.
भारत के बाहर शून्य -
यह एक विवाद का विषय हो सकता है कि संस्कृत की खगोलीय ग्रंथों की दुनिया से शून्य की यह संख्या दुनिया के बाकी हिस्सों में कैसे फैल गया. और हमारी यही दिक्कत है कि हमारे पास सबूत थोड़े कम हैं. संभव है कि व्यापार और प्रवास के दौरान भारतीय गणितीय ग्रंथ पश्चिम एशिया के पूर्व-इस्लामिक साम्राज्यों, विशेष रूप से सासैनियन साम्राज्य, जो अब ईरान है, तक फैले होंगे. खलीफा अल-मंसूर के शासनकाल के दौरान, संस्कृत खगोलीय कार्य करने वाले एक भारतीय विद्वान को 770 के दशक में बगदाद के आगंतुक के रूप में दर्ज किया गया था.
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उसके भी पहले 662 में, सेवेरस सेबोख्त नामक एक सीरियाई मोनोफिसाइट बिशप ने "भारतीयों के विज्ञान" और "खगोल विज्ञान में उनकी सूक्ष्म खोजों'' का जिक्र किया था. अरबों में भी इन विचारों और अवधारणाओं का विस्तार और विकास मिलता है जिसे हम सार्वभौमिक रूप से निश्चित हीं अपने अंकों और अपनी गणना प्रणाली के रूप में पहचानते हैं. कुछ और प्राचीन संस्कृतियाँ हैं जो बेबीलोनियों (जहाँ इसाब अल-हिंद के रूप में एक विषय को संदर्भित किया गया था जिसका शाब्दिक अर्थ "भारतीय गणना" है) की तरह इस संख्या का उपयोग करती हैं.
सार -
कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन सभ्यताएं 'नथिंग' की अवधारणा को जानती तो थी लेकिन उनके पास इसके लिए कोई शब्द, प्रतीक अथवा अक्षर नहीं था. हालाँकि यूरोप में इसे तुरंत नहीं अपनाया गया. वैसे भी पूर्व से मिलने वाली धर्म सम्बन्धी या अन्य किसी भी जानकारी को पश्चिम (यूरोप) के चर्च द्वारा संदिग्ध माना जाता था. पर समय के साथ वाणिज्य, व्यापार और औद्योगीकरण ने नई वैज्ञानिक अवधारणाओं को जन्म दिया, जिसने इस बात को रेखांकित किया कि प्राचीन भारत का शून्य का उपयोग वास्तव में कितना शानदार था. क्योंकि शून्य, और इसके कई अनुप्रयोगों के बिना, आधुनिक वाणिज्य से लेकर बैंकिंग, सांख्यिकी, कम्प्यूटर यहां तक कि कोडिंग तक किसी भी चीज को व्यवहार में लाना तो दूर की बात है कल्पना करना तक कठिन होता.
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निष्कर्ष -
निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि शून्य की उत्पत्ति भारत में हीं हुई और प्राचीन काल से हीं भारतीय खगोल शास्त्री तथा गणितज्ञ शून्य का उपयोग अपनी गणनाओं में किया करते थे.