यह पाठ पंजाबी लेखक गुरदयाल सिंह की आत्मकथा का एक अंश है । इसमें लेखक ने अपने बचपन के उन आनंदमयी दिनों का चित्रण किया है , जब खेलते – खेलते चोट लगती थी , हाथ – पैर छिल जाते थे , तब चोट लगने के बावजूद घर जाकर माता – पिता तथा बहनों की डाँट खानी पड़ती थी । कुछ क्षण बाद फिर से वही खेल मन को गुदगुदाने लगता था । लेखक ने अपने स्कूली जीवन के अनुभवों को वर्णित करते हुए कहा है कि उन दिनों स्कूल का वातावरण बहुत नीरस एवं भय उत्पन्न करने वाला हुआ करता था । लेखक ने अपनी आत्मकथा के इस अंश में स्पष्ट किया है कि बचपन में सभी बच्चों का एक जैसा हाल होता है । मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे बेतरतीब व मैले से कपड़े पहने छोटी – छोटी गलियों में खेलते – कूदते फिरते थे । भागते – दौड़ते समय हाथ – पैर छिलने या चोट लगने पर कोई परवाह नहीं करता , बल्कि परिवार वालों से डाँट ही पड़ती थी , परंतु खेल के प्रति लगाव कम नहीं होता था । लेखक बच्चों के इस खेल प्रेम को तब समझ पाया , जब उसने बाल – मनोविज्ञान पढ़ा । सभी बच्चों की आदतें मिलती – जुलती हैं । उन दिनों बच्चे स्कूल जाने में में रुचि नहीं लेते थे और माता – पिता भी पढ़ाई के लिए ज़बरदस्ती नहीं करते थे ।
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NCERT Solutions for Chapter 2: सपनों के-से दिन
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