दूसरे कवित्त में कवि ने चाँदनी रात की सुंदरता का बखान किया है। चाँदनी का तेज ऐसे बिखर रहा है, जैसे किसी स्फटिक मणि के प्रकाश से धरती जगमगा रही हो। चारों ओर सफेद रोशनी ऐसी लग रही है, जैसे कि दही का समंदर बह रहा हो। इस प्रकाश में दूर-दूर तक सब कुछ साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा लगता है कि पूरे फर्श पर दूध का झाग फैल गया है। उस फेने में तारे ऐसे लग रहे हैं, जैसे कि तरुणाई की अवस्था वाली लड़कियाँ सामने खड़ी हों। ऐसा लगता है कि मोतियों को चमक मिल गई है या जैसे बेले के फूल को रस मिल गया है। पूरा आसमान किसी दर्पण की तरह लग रहा है, जिसमें चारों तरफ रोशनी फैली हुई है। इन सब के बीच पूर्णिमा का चाँद ऐसे लग रहा है, जैसे आसमान रूपी दर्पण में राधा का प्रतिबिंब दिख रहा हो। प्रस्तुत सवैये में कवि देव ने श्री कृष्ण के राजसी रूप का वर्णन किया है। कवि का कहना है कि कृष्ण के पैरों की पायल मधुर धुन सुना रही हैं। कृष्ण ने कमर में करघनी पहनी है। जिससे उत्पन्न होने वाली धुन अत्यधिक मधुर लग रही है। उनके साँवले शरीर पर पीला वस्त्र लिपटा हुआ है और उनके गले में ‘बनमाल’ अर्थात एक प्रकार के फूलों की माला बड़ी सुंदर लग रही है। उनके सिर पर मुकुट सजा हुआ है। राजसी मुकुट के नीचे उनके चंचल नेत्र सुशोभित हो रहे हैं। उनके मुख को कवि देव ने चंद्रमा की उपमा दी है, जो कि उस अलौकिक आभा का प्रमाण है। श्रीकृष्ण के रूप को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वे संसार-रूपी मंदिर के दीपक के सामान प्रकाशित हैं। वे समस्त जगत को अपने ज्ञान की रौशनी से उज्जवल कर रहे हैं।